Stories Of Premchand

  • Autor: Vários
  • Narrador: Vários
  • Editor: Podcast
  • Duración: 591:59:34
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Sinopsis

Stories of Premchand narrated by various artists

Episodios

  • 13: प्रेमचंद की कहानी "ब्रह्म का स्वांग" Premchand Story "Brahm Ka Swaang"

    13/09/2018 Duración: 17min

    मैं वास्तव में अभागिन हूँ, नहीं तो क्या मुझे नित्य ऐसे-ऐसे घृणित दृश्य देखने पड़ते ! शोक की बात यह है कि वे मुझे केवल देखने ही नहीं पड़ते, वरन् दुर्भाग्य ने उन्हें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना दिया है। मैं उस सुपात्र ब्राह्मण की कन्या हूँ, जिसकी व्यवस्था बड़े-बड़े गहन धार्मिक विषयों पर सर्वमान्य समझी जाती है। मुझे याद नहीं, घर पर कभी बिना स्नान और देवोपासना किये पानी की एक बूँद भी मुँह में डाली हो। मुझे एक बार कठिन ज्वर में स्नानादि के बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों खेद रहा। हमारे घर में धोबी क़दम नहीं रखने पाता ! चमारिन दालान में भी नहीं बैठ सकती थी। किंतु यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ। मेरे स्वामी बड़े दयालु, बड़े चरित्रवान और बड़े सुयोग्य पुरुष हैं ! उनके यह सद्गुण देख कर मेरे पिताजी उन पर मुग्ध हो गये थे। लेकिन ! वे क्या जानते थे कि यहाँ लोग अघोर-पंथ के अनुयायी हैं। संध्या और उपासना तो दूर रही, कोई नियमित रूप से स्नान भी नहीं करता। बैठक में नित्य मुसलमान, क्रिस्तान सब आया-जाया करते हैं और स्वामी जी वहीं बैठे-बैठे पानी, दूध, चाय पी लेते हैं। इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे-बैठे मिठाइयाँ

  • 12: प्रेमचंद की कहानी "मूठ" Premchand Story "Mooth"

    07/09/2018 Duración: 33min

    डॉक्टर साहब डाक्टरी आय की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने उनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला हुज़ूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय। डॉक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ़्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धांत से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर यहाँ कदाचित् ही आते थे। यद्यपि डॉक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी,

  • 11: प्रेमचंद की कहानी "पशु से मनुष्य" Premchand Story "Pashu Se Manushya"

    01/09/2018 Duración: 27min

    संध्या का समय था, चैत का महीना। मित्रगण आ कर बगीचे के हौज़ के किनारे कुरसियों पर बैठे थे। बर्फ़ और दूध का प्रबन्ध पहले ही से कर लिया गया था, पर अभी तक फल न तोड़े गये थे। डॉक्टर साहब पहले फलों को पेड़ में लगे हुए दिखला कर तब उन्हें तोड़ना चाहते थे, जिसमें किसी को यह संदेह न हो कि फल इनके बाग़ के नहीं हैं। जब सब सज्जन जमा हो गये तब उन्होंने कहा आप लोगों को कष्ट होगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटके हुए देखिए। बड़ा ही मनोहर दृश्य है। गुलाब में भी ऐसी लोचनप्रिय लाली न होगी। रंग से स्वाद टपक पड़ता है। मैंने इसकी कलम ख़ास मलीहाबाद से मँगवायी थी और उसका विशेष रीति से पालन किया है। मित्रगण उठे। डॉक्टर साहब आगे-आगे चले रविशों के दोनों ओर गुलाब की क्यारियाँ थीं। उनकी छटा दिखाते हुए वे अन्त में सुफेदे के पेड़ के सामने आ गये। मगर, आश्चर्य ! वहाँ एक फल भी न था। डॉक्टर साहब ने समझा, शायद वह यह पेड़ नहीं है। दो पग और आगे चले, दूसरा पेड़ मिल गया। और आगे बढ़े, तीसरा पेड़ मिला। फिर पीछे लौटे और एक विस्मित दशा में सुफेदे के वृक्ष के नीचे आ कर रुक गये। इसमें सन्देह नहीं कि वृक्ष यही है, पर फल क्या हुए ? बीस-पच्चीस आम थे, एक क

  • 10: प्रेमचंद की कहानी "ज्वालामुखी" Premchand Story "Jwalamukhi"

    18/08/2018 Duración: 31min

    मुझे यहाँ रहते एक महीने से अधिक हो गया, पर अब तक मुझ पर यह रहस्य न खुला कि यह सुन्दरी कौन है ? मैं किसका सेवक हूँ ? इसके पास इतना अतुल धन, ऐसी-ऐसी विलास की सामग्रियाँ कहाँ से आती हैं ? जिधर देखता था, ऐश्वर्य ही का आडम्बर दिखाई देता था। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी, मानो किसी तिलिस्म में फँसा हूँ। इन जिज्ञासाओं का इस रमणी से क्या सम्बन्ध है यह भेद भी न खुलता था। मुझे नित्य उससे साक्षात् होता था, उसके सम्मुख आते ही मैं अचेत-सा हो जाता था, उसकी चितवनों में एक आकर्षण था, जो मेरे प्राणों को खींच लिया करता था। मैं वाक्य-शून्य हो जाता, केवल छिपी हुई आँखों से उसे देखा करता था। पर मुझे उसकी मृदुल मुस्कान और रसमयी आलोचनाओं तथा मधुर, काव्यमय भावों में प्रेमानंद की जगह एक प्रबल मानसिक अशांति का अनुभव होता था। उसकी चितवनें केवल हृदय को बाणों के समान छेदती थीं, उसके कटाक्ष चित्त को व्यस्त करते थे। शिकारी अपने शिकार को खिलाने में जो आनंद पाता है, वही उस परम सुंदरी को मेरी प्रेमातुरता में प्राप्त होता था। वह एक सौंदर्य ज्वाला थी जलाने के सिवाय और क्या कर सकती है ? तिस, पर मैं पतंग की भाँति उस ज्वाला पर अपने को समर्पण करना चाहता

  • 9: प्रेमचंद की कहानी "सच्चाई का उपहार" Premchand Story "Sachchai Ka Uphaar"

    16/08/2018 Duración: 17min

    यह कहते ही वह बाजबहादुर की तरफ घूँसा तानकर बढ़ा। जगत सिंह ने उसके दोनों हाथ पकड़ने चाहे। जयराम का छोटा भाई शिवराम अमरूद की एक टहनी लेकर झपटा। शेष लड़के चारों तरफ खड़े होकर तमाशा देखने लगे यह ‘रिजर्व’ सेना थी, जो आवश्यकता पड़ने पर मित्र-दल की सहायता के लिए तैयार थी। बाजबहादुर दुर्बल लड़का था। उसकी मरम्मत करने को वह तीन मज़बूत लड़के काफ़ी थे। सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षण-भर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे। बाजबहादुर ने देखा कि शत्रुओं ने शस्त्र-प्रहार करना शुरू कर दिया, तो उसने कनखियों से इधर-उधर देखा। तब तेजी से झपटकर शिवराम के हाथ से अमरूद की टहनी छीन ली और दो क़दम पीछे हटकर टहनी ताने हुए बोला—तुम मुझे सचाई का इनाम या, सज़ा देनेवाले कौन होते हो ? दोनों ओर से दाँव पेंच होंने लगे। बाजबहादुर था तो कमज़ोर, पर अत्यंत चपल और सतर्क था, उस पर सत्य का विश्वास हृदय को और भी बलवान बनाए हुए था। सत्य चाहे सिर कटा दे, लेकिन क़दम पीछे नहीं हटता। कई मिनट तक बाजबहादुर उछल-उछलकर वार करता और हटाता रहा। लेकिन अमरूद की टहनी कहाँ तक थाम सकती। जरा देर में उसकी धज्जियाँ उड़ गईं। जब तक उसके हाथ में वह हरी तलवार रही कोई उसके निकट आने की

  • 8: प्रेमचंद की कहानी "बोध" Premchand Story "Bodh"

    14/08/2018 Duración: 16min

    यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिये और क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडितजी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मारपीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा-उठाकर ज़मीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे, तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजन ने सीटी दी। जाकर गाड़ी में बैठ गए। उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुजरी। जरा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी ! प्रत्येक स्टेशन पर कोयला-पानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने को भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी प्रकार जब्त किया। आगे चलकर विवश हो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़े। खड़े न हो सकते थे। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतार

  • 7: प्रेमचंद की कहानी "बलिदान" Premchand Story "Balidaan"

    12/08/2018 Duración: 20min

    गिरधारी उदास और निराश होकर घर आया। 100 रुपये का प्रबंध करना उसके काबू के बाहर था। सोचने लगा, अगर दोनों बैल बेच दूँ तो खेत ही लेकर क्या करूँगा ? घर बेचूँ तो यहाँ लेने वाला ही कौन है ? और फिर बाप दादों का नाम डूबता है। चार-पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेचकर 25 रुपये या 30 रुपये से अधिक न मिलेंगे। उधार लूँ तो देता कौन है ? अभी बनिये के 50 रुपये सिर पर चढ़ हैं। वह एक पैसा भी न देगा। घर में गहने भी तो नहीं हैं, नहीं उन्हीं को बेचता। ले देकर एक हँसली बनवायी थी, वह भी बनिये के घर पड़ी हुई है। साल-भर हो गया, छुड़ाने की नौबत न आयी। गिरधारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों ही इसी चिंता में पड़े रहते, लेकिन कोई उपाय न सूझता था। गिरधारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नींद न आती। खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती। हाय ! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता, जिसे खाद से पाटा, जिसमें मेड़ें रखीं, जिसकी मेड़ें बनायी, उसका मजा अब दूसरा उठाएगा। वे खेत गिरधारी के जीवन का अंश हो गए थे। उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त में रँगी हुई थी। उनके एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो रहा था। उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी त

  • 6: प्रेमचंद की कहानी "शिकारी राजकुमार" Premchand Story "Shikaari Raajkumar"

    10/08/2018 Duración: 18min

    मई का महीना और मध्याह्न का समय था। सूर्य की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शील न था। ऐसा विदित होता था मानो पृथ्वी उनके भय से थर-थर काँप रही थी। ठीक ऐसी ही समय एक मनुष्य एक हिरन के पीछे उन्मत्त चाल से घोड़ा फेंके चला आता था। उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ। किन्तु मृग भी ऐसा भागता था, मानो वायु-वेग से जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके पद भूमि को स्पर्श नहीं करते ! इस दौड़ की जीत-हार पर उसका जीवन-निर्भर था। पछुआ हवा बड़े ज़ोर से चल रही थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो अग्नि और धूल की वर्षा हो रही हो। घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था। किन्तु मृग का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कि अपनी बंदूक को सम्हाले। कितने ही ऊँख के खेत, ढाक के वन और पहाड़ सामने पड़े और तुरन्त ही सपनों की सम्पत्ति की भाँति अदृश्य हो गए। क्रमश: मृग और अश्वारोही के बीच अधिक अंतर होता जाता था कि अचानक मृग पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ऊंचा कगार दीवार की भाँति खड़ा था। आगे भागने की राह बन्द थी और उस पर से कूंदना मानो मृत्यु के मुख में कूंदना था।

  • 5: प्रेमचंद की कहानी "सेवा मार्ग" Premchand Story "Sewa Maarg"

    08/08/2018 Duración: 18min

    धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती, वह अपना अहौभाग्य समझता, सदैव के लिए उसका बेदाम का ग़ुलाम बन जाता। एक दिन तारा अपनी आनंद-वाटिका में टहल रही थी। अचानक किसी के गाने का मनोहर शब्द सुनाई दिया। तारा विक्षिप्त हो गई। उसके दरबार में संसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे; पर वह चित्ताकर्षकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न हुई थी। तारा ने गायक को बुला भेजा। एक क्षण के अनंतर में वाटिका में एक साधु आया, सिर पर जटाएँ, शरीर में भस्म रमाए। उसके साथ एक टूटा हुआ बीन था। उसी से वह प्रभावशाली स्वर निकालता था, जो हृदय के अनुरक्त स्वरों से कहीं प्रिय था। साधु आकर हौज़ के किनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शिष्टभाव नहीं दिखाया। आश्चर्य से इधर-उधर दृष्टि नहीं डाली। उस रमणीय स्थान में वह अपना सुर अलापने लगा। तारा का चित्त विचलित हो उठा। दिल में अनुराग का संचार हुआ। मदमत्त होकर टहलने लगी। साधु के सुमनोहर मधुर अलाप से पक्षी मग्न हो गए। पानी में लहरें उठने लगीं। वृक्ष झूमने लगे। तारा ने उन चित्ताकर्षक

  • 4: प्रेमचंद की कहानी "धर्मसंकट" Premchand Story "DharmSankat"

    06/08/2018 Duración: 16min

    मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता के प्रवाह में बहने वाले अपने अन्य सहयोगियों की भाँति हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के कट्टर विरोधी थे। हिंदू सभ्यता उन्हें दोषपूर्ण दिखाई देती थी ! अपने इन विचारों को वे अपने ही तक परिमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही ओजस्विनी भाषा में इन विषयों पर लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के विवेकी भक्त उनके इन विवेकशून्य विचारों पर हँसते थे; परन्तु उपहास और विरोध तो सुधारक के पुरस्कार हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते थे। वे कोरे वाक्य-वीर ही न थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की स्वतंत्रता उनके विचारों का प्रत्यक्ष स्वरूप थी। सौभाग्यवश कामिनी के पति गोपालनारायण भी इन्हीं विचारों में रँगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में विद्याध्ययन करते थे। कामिनी भाई और पति के उपदेशों से पूरा-पूरा लाभ उठाने में कमी न करती थी। लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े आनंद से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को कुछ सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत अलापती सौंदर्य और प्रीति के नव रमणीय संसार में रमण करती थी, जहाँ का दुःख और क्ल

  • 3: प्रेमचंद की कहानी "बेटी का धन" Premchand Story "Beti Ka Dhan"

    04/08/2018 Duración: 21min

    इस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगार के मारे गाँववालों का नाकों दम था। उस साल जब ज़िला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरातन चिह्नों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँववालों की दुःख-कहानी उन्हें सुनायी। हाकिमों से वार्तालाप करने में उसे तनिक भी भय न होता था। सुक्खू चौधरी को खूब मालूम था कि जीतनसिंह से रार मचाना सिंह के मुँह में सिर देना है। किंतु जब गाँववाले कहते थे कि चौधरी तुम्हारी ऐसे-ऐसे हाकिमों से मिताई है और हम लोगों को रात-दिन रोते कटता है तो फिर तुम्हारी यह मित्रता किस दिन काम आवेगी। परोपकाराय सताम् विभूतयः। तब सुक्खू का मिज़ाज आसमान पर चढ़ जाता था। घड़ी भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता था। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका उत्तर माँगा। उधर झगडू साहु ने चौधरी के इस साहसपूर्ण स्वामीद्रोह की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी। ठाकुर साहब जल कर आग हो गये। अपने कारिंदे से बकाया लगान की बही माँगी। संयोगवश चौधरी के जिम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो पैदावार कम हुई, उस पर गंगाजली का ब्याह करना पड़ा। छोटी बहू नथ की रट लगाये हुए थी; वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हा

  • 2: प्रेमचंद की कहानी "ग़रीब की हाय" Premchand Story "Ghareeb Ki Hai"

    02/08/2018 Duración: 29min

    अब कोई मूँगा का दुःख सुननेवाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी; पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन उसने काम न करने की कसम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपयों की रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते, उसे केवल एक काम था और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। अपने झोपड़े के दरवाज़े पर बैठी हुई वह रात-दिन उन्हें सच्चे मन से असीसा करती। बहुधा अपने असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के वाक्य और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचम्भे में आ जाते। धीरे-धीरे मूँगा पगली हो चली। नंगे-सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती। झोपड़ी के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आँखें, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पाँव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हँसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गाँव में निकल आती, तो स्त्रियाँ घरों के किवाड़ बंद कर लेतीं। पुरुष कतराकर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था, तो वह मुंशी रामस

  • 1: प्रेमचंद की कहानी "ख़ून सफ़ेद" Premchand Story "Khoon Safed"

    31/07/2018 Duración: 24min

    देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये। पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलाए ? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी ? उसने आप कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दु:ख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीनहीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती। हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रायः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाई में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी। दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पृरुष के चित्

  • 21: प्रेमचंद की कहानी "नागपूजा" Premchand Story "Naagpooja"

    29/07/2018 Duración: 23min

    तिलोत्तमा अभी कुछ जवाब न देने पायी थी कि अचानक बारात की ओर से रोने के शब्द सुनायी दिये, एक क्षण में हाहाकार मच गया। भयंकर शोक-घटना हो गयी। वर को साँप ने काट लिया। वह बहू को विदा कराने आ रहा था। पालकी में मसनद के नीचे एक काला साँप छिपा हुआ था। वर ज्यों ही पालकी में बैठा, साँप ने काट लिया। चारों ओर कुहराम मच गया। तिलोत्तमा पर तो मानो वज्रपात हो गया। उसकी माँ सिर पीट-पीट कर रोने लगी। उसके पिता बाबू जगदीशचंद्र मूर्छित हो कर गिर पड़े। हृद्रोग से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड़-फूँक करने वाले आये, डॉक्टर बुलाये गये, पर विष घातक था। जरा देर में वर के होंठ नीले पड़ गये, नख काले हो गये, मूर्च्छा आने लगी। देखते-देखते शरीर ठंडा पड़ गया। इधर उषा की लालिमा ने प्रकृति को आलोकित किया, उधर टिमटिमाता हुआ दीपक बुझ गया। जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन में झुँझलाता है कि यह और तेज क्यों् नहीं चलती, कहीं आराम से बैठने की जगह नहीं, यह इतनी हिल क्यों रही है, मैं व्यर्थ ही इसमें बैठा; पर अकस्मात् नाव को भँवर में पड़ते देख कर उसके मस्तूल से चिपट जाता है, वही दशा तिलोत्तमा की हुई। अभी तक वह वियोग-दुःख में ही मग्न थी,

  • 20: प्रेमचंद की कहानी "लोकमत का सम्मान" Premchand Story "Lokmat Ka Samman"

    27/07/2018 Duración: 18min

    बेचू शहर में आया तो ऐसा जान पड़ा कि मेरे लिए पहले से ही जगह ख़ाली थी। उसे केवल एक कोठरी किराये पर लेनी पड़ी और काम चल निकला। पहले तो वह किराया सुनकर चकराया। देहात में तो उसे महीने में इतनी धुलाई भी न मिलती थी। पर जब धुलाई की दर मालूम हुई तो किराये की अखर मिट गयी। एक ही महीने में गाहकों की संख्या उसकी गणना-शक्ति से अधिक हो गयी। यहाँ पानी की कमी न थी। वह वादे का पक्का था। अभी नागरिक जीवन के कुसंस्कारों से मुक्त था। कभी-कभी उसकी एक दिन की मज़दूरी देहात की वार्षिक आय से बढ़ जाती थी। लेकिन तीन ही चार महीने में उसे शहर की हवा लगने लगी। पहले नारियल पीता था, अब एक गुड़गुड़ी लाया। नंगे पाँव जूते से वेष्टित हो गये और मोटे अनाज से पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ने लगा। पहले कभी-कभी तीज-त्यौहार के दिन शराब पी लिया करता था, अब थकान मिटाने के लिए नित्य उसका सेवन होने लगा। स्त्री को आभूषणों की चाट पड़ी। और धोबिनें बन-ठनकर निकलती हैं, मैं किससे कम हूँ। लड़के खोंचे पर लट्टू हुए, हलवे और मूँगफली की आवाज़ सुनकर अधीर हो जाते। उधर मकान के मालिक ने किराया बढ़ा दिया; भूसा और खली भी मोतियों के मोल बिकती थी। लादी के दोनों बैलों का पेट भरन

  • 19: प्रेमचंद की कहानी "सुहाग की साड़ी" Premchand Story "Suhag Ki Saree"

    25/07/2018 Duración: 20min

    रतनसिंह ने कुछ उत्तर न दिया। तब गौरा ने अपना संदूक खोला और जलन के मारे स्वदेशी-विदेशी सभी कपड़े निकाल-निकाल कर फेंकने लगी। वह आवेश-प्रवाह में आ गयी। उनमें कितनी ही बहुमूल्य फैंसी जाकेट और साड़ियाँ थीं जिन्हें किसी समय पहन कर वह फूली न समाती थी। बाज-बाज साड़ियों के लिए तो उसे रतनसिंह से बार-बार तकाजे करने पड़े थे। पर इस समय सब की सब आँखों में खटक रही थीं। रतनसिंह उसके भावों को ताड़ रहे थे। स्वदेशी कपड़ों का निकाला जाना उन्हें अखर रहा था, पर इस समय चुप रहने ही में कुशल समझते थे। तिस पर भी दो-एक बार वाद-विवाद की नौबत आ ही गयी। एक बनारसी साड़ी के लिए तो वह झगड़ बैठे, उसे गौरा के हाथों से छीन लेना चाहा, पर गौरा ने एक न मानी, निकाल ही फेंका। सहसा संदूक में से एक केसरिया रंग की तनजेब की साड़ी निकल आयी जिस पर पक्के आँचल और पल्ले टँके हुए थे। गौरा ने उसे जल्दी से लेकर अपनी गोद में छिपा लिया।

  • 18: प्रेमचंद की कहानी "प्रारब्ध" Premchand Story "Prarabdh"

    23/07/2018 Duración: 25min

    आधी रात गुजर चुकी। जीवनदास की हालत आज बहुत नाजुक थी। बार-बार मूर्च्छा आ जाती। बार-बार हृदय की गति रुक जाती। उन्हें ज्ञात होता था कि अब अन्त निकट है। कमरे में एक लैम्प जल रहा था। उनकी चारपाई के समीप ही प्रभावती और उसका बालक साथ सोए हुए थे। जीवनदास ने कमरे की दीवारों को निराशापूर्ण नेत्रों से देखा जैसे कोई भटका हुआ पथिक निवास-स्थान की खोज में हो ! चारों ओर से घूम कर उनकी आँखें प्रभावती के चेहरे पर जम गयीं। हा ! यह सुन्दरी एक क्षण में विधवा हो जायेगी ! यह बालक पितृहीन हो जायेगा। यही दोनों व्यक्ति मेरी जीवन-आशाओं के केन्द्र थे। मैंने जो कुछ किया, इन्हीं के लिए किया। मैंने अपना जीवन इन्हीं पर समर्पण कर दिया था और अब इन्हें मँझधार में छोड़े जाता हूँ। इसलिए कि वे विपत्ति भँवर के कौर बन जायँ। इन विचारों ने उनके हृदय को मसोस दिया। आँखों से आँसू बहने लगे। अचानक उनके विचार-प्रवाह में एक विचित्र परिवर्तन हुआ। निराशा की जगह मुख पर एक दृढ़ संकल्प की आभा दिखायी दी, जैसे किसी गृहस्वामिनी की झिड़कियाँ सुन कर एक दीन भिक्षुक के तेवर बदल जाते हैं। नहीं, कदापि नहीं ! मैं अपने प्रिय पुत्र और अपनी प्राण-प्रिया पत्नी पर प्रारब्ध का

  • 17: प्रेमचंद की कहानी "विस्मृति" Premchand Story "Vismriti"

    21/07/2018 Duración: 51min

    प्रातःकाल ग्रामवासियों ने आश्चर्यपूर्वक सुना कि ठाकुर ललनसिंह की किसी ने हत्या कर डाली। सारे गाँव के स्त्री-पुरुष, वृद्ध-युवा सहस्त्रों की संख्या में चौपाल के सामने जमा हो गये। स्त्रियाँ पनघटों को जाती हुई रुक गयीं। किसान हल-बैल लिये ज्यों के त्यों खड़े रह गये। किसी की समझ में न आता था कि यह हत्या किसने की। कैसा मिलनसार, हँसमुख, सज्जन मनुष्य था ! उनका कौन ऐसा शत्रु था। बेचारे ने किसी पर इजाफ़ा लगान या बेदख़ली की नालिश तक नहीं की। किसी को दो बात तक नहीं कही। दोनों भाइयों के नेत्रों से आँसू की धारा बहती थी। उनका घर उजड़ गया। सारी आशाओं पर तुषारपात हो गया। गुमानसिंह ने रोकर कहा-हम तीन भाई थे, अब दो ही रह गये। हमसे तो दाँत-काटी रोटी थी। साथ उठना, हँसी-दिल्लगी, भोजन-छाजन एक हो गया था। हत्यारे से इतना भी नहीं देखा गया। हाय ! अब हमको कौन सहारा देगा ? शानसिंह ने आँसू पोंछते हुए कहा-हम दोनों भाई कपास निराने जा रहे थे। ललनसिंह से कई दिन से भेंट नहीं हुई थी। सोचे कि इधर से होते चलें, किंतु पिछवाड़े आते ही सेंध दिखायी पड़ी। हाथों के तोते उड़ गये। दरवाज़े पर जाकर देखा तो चौकीदार-सिपाही सब सो रहे हैं। उन्हें जगा कर ललनसिं

  • 16: प्रेमचंद की कहानी "महातीर्थ" Premchand Story "Mahateerth"

    20/06/2018 Duración: 25min

    कैलासी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था; परंतु धीरे-धीरे उसकी सब पत्तियाँ गिर गयीं। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गयी, और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरे-भरे पेड़ की चिह्न रह गयी थी। परंतु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गयी थी। इसमें हरी-भरी पत्तियाँ निकल आयी थीं। वह जीवन, जो अब तक नीरस और शुष्क था; अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था। कैलासी रुद्र की भोली-भाली बातों पर निछावर हो गयी; पर वह अपना स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के हृदय में द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिप कर मिठाइयाँ लाती और उसे खिला कर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज़ नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जायेगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर से बचाने के लिए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमें स्वार्थ की गंध भी न थी। इस घर से निकल कर आज कैलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में

  • 15: प्रेमचंद की कहानी "दो भाई" Premchand Story "Do Bhai"

    19/06/2018 Duración: 13min

    दोनों भाई संतानवान हुए। हरा-भरा वृक्ष खूब फैला और फलों से लद गया। कुत्सित वृक्ष में केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीला-सा, मुरझाया हुआ; किंतु दोनों अप्रसन्न थे। माधव को धन-सम्पत्ति की लालसा थी और केदार को संतान की अभिलाषा। भाग्य की इस कूटनीति ने शनैः-शनैः द्वेष का रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अनीति कभी-कभी कटु शब्दों में निकल जाती। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। परन्तु उसकी यह सहनशीलता चम्पा के क्रोध को शांत करने के बदले और बढ़ाती। यहाँ तक कि प्याला लबालब भर गया। हिरन भागने की राह न पा कर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा समकोण बनानेवाली रेखाओं की भाँति अलग हो गयीं। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, परन्तु भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही। कई वर्ष बीत गये। दोनों भाई जो किसी समय एक ही पालथी पर बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही छाती से दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना कठिन हो गया। परन्तु क

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